June 20, 2007

ब्रिटिश साम्राज्य पत्तन के पूर्व भारतीय शिल्पकला पर शिल्पी का कोई हस्ताक्षर नहीं होता था। शिल्पी का सत्ता शिल्प से बढकर भी नहीं होता था। कुछ हद तक इसी कारणवश पास्चात्य में प्रचलित चारुकला एवं ललितकला के बिच का अंतर भी भरता में प्रचलित नहीं था। यह भारतीय शिल्पकला कि एक विशेषता एवं एक दुर्बलता; दोनो माना जा सकता हैं। पर इसी विशेषता को अपनाकर भारत का प्रथम आधुनिक शिल्पकार अबनिन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय ललित कला को अंग्रेजी-विरोधी रुप दिया था। अबनिन्द्रनाथ का कहना था कि यही भारतीय चित्रकला का पारिभाषिक रुप (defining features) होना चाहिए।

यह बात और है कि इस परिभाषा की मान्यता सिर्फ अबनिन्द्रनाथ के काल में ही की गयी थी। उनके बाद के चित्रकार इस बात को मानने से ना तो सिर्फ इनकार कर दिए थे, बल्कि अबनिन्द्रनाथ एवं उनके ग्रुप के साथ जौथ प्रदर्शनी में भी इन नए चित्रकारों ने कोई रूचि नहीं दिखाई। इन प्रतिबादी चित्रकारों में थे उस जमाने के उभरते प्रतिभायें, जेसे जामिनी राय, जैनुल आबेदीन और रामकिंकर बैज।

इन चर्चों से बाहर राजा रवि वर्मा ने अपनी एक अलग पहचान सम्पूर्ण रुप मे ईयोरोपीय धारा में चित्र बनाकर बनायी परंतु उनका विषय भारतीय होता था और इस तरह भी एक भारतीय धारा की शुरुयात हुई थी। के ० जीं ० सुभ्रमनिय न तो भरतीय सरलीकरण को त्यागकर ईरोपिया रीति में रुप के खंडन के प्रक्रिया को भी भारतीय शिल्प के मध्य में ले आया था।