November 15, 2007

आर्ट ग्रुप और भारतीय शिल्पकृति

भारातीय
शिल्पकला के इतिहास को हम युग्पुरुशों के द्वारा विभाजित करसकते हैं। जैसे अवनिन्द्र-गगानेंन्द्र काल, फिर नन्दलाल-रामकिंकर का युग, फिर जैनुलाबेदीन-परितोष सेन के युग, इत्यादी। परन्तु इस तरह के काल-विभाजन के कई असुविधाएं हैं। इसलिए कला के काल-विभाजन का सर्वोत्तम उपाय हैं कला-भावनाओं के उभरते रूप के अनुसार विभाजन ।




इस तराहे से देखा जाये तो अवनिन्द्रनाथ से नन्दलाल बोस के समय को हम राष्ट्रीय-चिंतन का काल कह सकते हैं। इस काल के प्राय सभी मुख्य कलाकार भारतीय शिल्प का एक अपना भाषा खोजने में व्यस्त रहे।

केवल गगनेन्द्रनाथ और राजा रवि वर्मा इस भावना से बचे रहे। गगनेन्द्रनाथ ने पश्चिमी इम्प्रेशानिस्ट एवं क्युबिस्त धारा में अनेक चित्र बनाए और राजा रवि वर्मा प्रास्चात्य रेअलिस्ट धारा में चित्रांकन किये।



पर राष्ट्रीय कला का समर्थन अगले पचास सालों में कम होने लगा और नए कलाकार जैसे रविंद्रनाथ ठाकुर, रामकिंकर बैज एवं जमीनी राय देश विदेश के अनेक धाराओं का अध्ययन कर अपना एक अनोखा पहचान बनाए थे।

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में पनपा दो मुख्य आर्ट ग्रुप : कलकत्ता का कलकाटा ग्रुप एवं मूलतः मुम्बई के कलालारों का प्रोगृसीव अर्तिस्ट्स ग्रुप ।

परन्तु कलकाटा ग्रुप और प्रोगृसीव अर्तिस्ट्स ग्रुप का नीतिगत मिलन छणभंगुर ही रहा और यह सारे कलाकार धीरे धीरे ग्रुपों से निकलकर एकाकी काम करने लगे ।

आज भी ग्रुप बनाने के चेस्टा कलाकारों मी पाई जाती है, जैसे जितिश कल्लत और अतुल दोदिया जैसे मुम्बई के कलाकारों का ग्रुप या फिर देवज्योति राय और मोहन सिंह जैसे दिल्ली के कलाकारों का ग्रुप । पर क्या यह ग्रुप नीतिगता रूप से एकत्रित हैं? या फिर इनका मूल उद्देश्य है बाज़ार का एकत्रित बन्टन ? देवज्योति राय आज भारतीय कला का एक नया सितारा है । उनका काम न सिर्फ अनोखा है बल्कि उनका सोच सम्पूर्ण रूप से नूतन एवं मूल-चिंतन का निदर्शन है । परन्तु उनका काम अन्य अनेक कलाकारों से अलग है । क्या यह भेद किसी दिन उनके ग्रुप के विभाजन का कारन नहीं होगा? बोस कृष्णामचारी आज अतुल दोदिया या फिर शिबू नाटैसन के साथ कम नहीं करते । क्या यह भेद अन्य ग्रुपों का भी अन्तिम नियति नही हैं? असल प्रश्ण यह है कि क्या आधुनिक भारतीय कलाक्षेत्र में ग्रुपों का कोई स्थान हैं?
इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमे देखना होगा कि ग्रुपों कि उत्पत्ति कैसे हुए थे। अवनिन्द्रनाथ ठाकुर के समय भारत के शिल्पकारों का कोई निजी बाज़ार नहीं था। कभी कभात उनके शिल्पा कर्म स्वल्प मूल्यों मी बिकते थे। उस वक्त कलाकारों के पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वे एकाकी प्रदर्शनी कर सके। कुछ हद तक इन्ही कारणों से ग्रुप शो ज्यादा होते थे। पर अब ऐसा नहीं है। देवज्योति राय जैसे उभरते कलाकारों के भी चित्र-कृतियाँ आज विदेशों में ऊँचे दामों में बिकते हैं। जितिश कल्लत का विदेशी बाज़ार इतना अच्छा हैं कि वे पिछले कई सालों से भारत मी कोई भी मूलभूत प्रदर्शनी नहीं किये।
फिर ग्रुपों कि क्या जरूरत? उत्तर है आदर्षा, समभाव चिंतन और समान चित्र्काल्पना। मोहन सिंह, देवज्योति राय और विजयेन्द्र शर्म या फिर नीरज गोस्वामी के चित्र कला भिन्न हैं पर इनका सोच कुछ हद तक मिलते जुलते हैं। येही कारण है कि अब वे एकत्रित चित्र-प्रदर्शनी कर रहें हैं।
पर यदि इतना ही काफी है तो कुछ वर्षों के एकत्रित काम के बाद ग्रुपों का बन्टन क्यों हो रह है ?
आने वाले इस्सुयों में हम इसी बात का थोडा और गंभीर मूल्यांकन करेंगे।

November 8, 2007




भारतीय चित्रकला के कालानुसार कुछ आधुनिक निदर्शन


आधुनिक भारतीय शिल्पकला के जनक अवनिन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्नीसवी सदी में शान्तिनिकेतन में कलाभवन का स्थापना किया था। उस ज़माने के प्राय सभी प्रमुख कला कार शान्तिनिकेतन से जुडे थे।


अबनिन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा किये गए वश चित्रकला


नंदलाल बोस: कलाभवन के प्रिन्सिपाल एवं आने वाले कल के प्रमुख शिल्पियों के अध्यापक




बंगाल के तरह उस वक्त भारत के एक और प्रांत में kalaa के क्षेत्र मी मूल चिंतन का निदर्शन रखे थे। वह क्षेत्र था केरल। राजा रवि वर्मा थे इस क्षेत्र के सर्व प्रमुख कलावीध।


बाबुराव पेंटर की कलाकृति


रामकिंकर बैज की रचना

गागानेंद्र नाथ के बंगाल स्कूल के विरोध में शुरू हुआ था कलकत्ता ग्रुप जिसके मुख्य मेम्बर्स थे रामकिंकर बैज, जमीनी राय और परितोष सेन। और इसके कुछ समय बाद मुम्बई मी शुरू हुआ प्रोग्रेसिव अर्तिस्ट्स ग्रुप जिसके प्रायोजक थे फ्रांसिस सुजा और मकबूल फ़िदा हुसैन


सुजा कि रचना

कुछ सालों तक मुम्बई के शिल्पियों का ही बोलबाला रहा। फिर बंगाल मी बना एक नया ग्रुप : सोसैती ऑफ़ कोंतेम्पोरारी अर्तिस्ट्स। भारत के प्राय सभी प्रमुख कलाकार कुछ दिनों के लिए इस विराट ग्रुप के सदस्य रहे। जैसे गणेश पाइन, बिकाश भट्टाचार्य, और मनु पारेख।


गणेश पाइन


मनु पारेख

परन्तु आधुनिक युग में येः सारे ग्रुपों का कों बोलबाला नहीं रहा। आजकल के प्रमुख शिल्पियाँ किसी ग्रुप में काम नहीं करते। अतुल दोदिया, देवज्योति रे , चिंतन उपाध्याय एवं परेश मैती सम्पूर्ण रूप से स्वतंत्र काम करते हैं। ये किसी विशेष अंचल को प्रतिबिम्बित न करके सम्पूर्ण भारत कि आधुनिक चिंतन को दर्शाते हैं।


अतुल दोदिया



देवज्योति रे



परेश मैती

June 20, 2007

ब्रिटिश साम्राज्य पत्तन के पूर्व भारतीय शिल्पकला पर शिल्पी का कोई हस्ताक्षर नहीं होता था। शिल्पी का सत्ता शिल्प से बढकर भी नहीं होता था। कुछ हद तक इसी कारणवश पास्चात्य में प्रचलित चारुकला एवं ललितकला के बिच का अंतर भी भरता में प्रचलित नहीं था। यह भारतीय शिल्पकला कि एक विशेषता एवं एक दुर्बलता; दोनो माना जा सकता हैं। पर इसी विशेषता को अपनाकर भारत का प्रथम आधुनिक शिल्पकार अबनिन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय ललित कला को अंग्रेजी-विरोधी रुप दिया था। अबनिन्द्रनाथ का कहना था कि यही भारतीय चित्रकला का पारिभाषिक रुप (defining features) होना चाहिए।

यह बात और है कि इस परिभाषा की मान्यता सिर्फ अबनिन्द्रनाथ के काल में ही की गयी थी। उनके बाद के चित्रकार इस बात को मानने से ना तो सिर्फ इनकार कर दिए थे, बल्कि अबनिन्द्रनाथ एवं उनके ग्रुप के साथ जौथ प्रदर्शनी में भी इन नए चित्रकारों ने कोई रूचि नहीं दिखाई। इन प्रतिबादी चित्रकारों में थे उस जमाने के उभरते प्रतिभायें, जेसे जामिनी राय, जैनुल आबेदीन और रामकिंकर बैज।

इन चर्चों से बाहर राजा रवि वर्मा ने अपनी एक अलग पहचान सम्पूर्ण रुप मे ईयोरोपीय धारा में चित्र बनाकर बनायी परंतु उनका विषय भारतीय होता था और इस तरह भी एक भारतीय धारा की शुरुयात हुई थी। के ० जीं ० सुभ्रमनिय न तो भरतीय सरलीकरण को त्यागकर ईरोपिया रीति में रुप के खंडन के प्रक्रिया को भी भारतीय शिल्प के मध्य में ले आया था।

April 19, 2007

Bharatiya Chitrakala